राम चरित मानस अरण्यकांड दोहा संख्या २:-
च॰-प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा ।चला भाजि बायस भय पावा ॥
धरि निज रुप गयउ पितु पाहीं ।राम बिमुख राखा तेहि नाहीं ॥१॥
भा निरास उपजी मन त्रासा ।जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा ॥
ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका ।फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका ॥२॥
काहूँ बैठन कहा न ओही ।राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥
मातु मृत्यु पितु समन समाना ।सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ॥३॥
मित्र करइ सत रिपु कै करनी ।ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी ॥
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता ।जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ॥४॥
नारद देखा बिकल जयंता ।लागि दया कोमल चित संता ॥
पठवा तुरत राम पहिं ताही ।कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही ॥५॥
आतुर सभय गहेसि पद जाई ।त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई ।मैं मतिमंद जानि नहिं पाई ॥६॥
निज कृत कर्म जनित फल पायउँ ।अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ ॥
सुनि कृपाल अति आरत बानी ।एकनयन करि तजा भवानी ॥७॥
सो॰ कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित ।
प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम ॥ २ ॥