राम चरित मानस अयोध्याकांड दोहा संख्या १४९:-
भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई, बूड़त कछु अधार जनु पाई ||
सहित सनेह निकट बैठारी, पूँछत राउ नयन भरि बारी ||
राम कुसल कहु सखा सनेही, कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही ||
आने फेरि कि बनहि सिधाए, सुनत सचिव लोचन जल छाए ||
सोक बिकल पुनि पूँछ नरेसू, कहु सिय राम लखन संदेसू ||
राम रूप गुन सील सुभाऊ, सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ ||
राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू, सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू ||
सो सुत बिछुरत गए न प्राना, को पापी बड़ मोहि समाना ||
दो -सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ,
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ ||१४९ ||