राम चरित मानस अयोध्याकांड दोहा संख्या १६३:-
सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई, जरहिं गात रिस कछु न बसाई ||
तेहि अवसर कुबरी तहँ आई, बसन बिभूषन बिबिध बनाई ||
लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई, बरत अनल घृत आहुति पाई ||
हुमगि लात तकि कूबर मारा, परि मुह भर महि करत पुकारा ||
कूबर टूटेउ फूट कपारू, दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू ||
आह दइअ मैं काह नसावा, करत नीक फलु अनइस पावा ||
सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी, लगे घसीटन धरि धरि झोंटी ||
भरत दयानिधि दीन्हि छड़ाई, कौसल्या पहिं गे दोउ भाई ||
दो -मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार,
कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुसार ||१६३ ||