राम चरित मानस अयोध्याकांड दोहा संख्या १८:-
चौ॰-चतुर गँभीर राम महतारी, बीचु पाइ निज बात सँवारी ||
पठए भरतु भूप ननिअउरें, राम मातु मत जानव रउरें ||१||
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें, गरबित भरत मातु बल पी कें ||
सालु तुम्हार कौसिलहि माई, कपट चतुर नहिं होइ जनाई ||२||
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी, सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी ||
रची प्रंपचु भूपहि अपनाई, राम तिलक हित लगन धराई ||३||
यह कुल उचित राम कहुँ टीका, सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका ||
आगिलि बात समुझि डरु मोही, देउ दैउ फिरि सो फलु ओही ||४||
दो -रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु ||
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु ||१८ ||