राम चरित मानस अयोध्याकांड दोहा संख्या २४९ :-
राम बचन सुनि सभय समाजू, जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू ||
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला, भयउ मनहुँ मारुत अनुकुला ||
पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं, जो बिलोकि अंघ ओघ नसाहीं ||
मंगलमूरति लोचन भरि भरि, निरखहिं हरषि दंडवत करि करि ||
राम सैल बन देखन जाहीं, जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं ||
झरना झरिहिं सुधासम बारी, त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी ||
बिटप बेलि तृन अगनित जाती, फल प्रसून पल्लव बहु भाँती ||
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं, जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं ||
दो -सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग,
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग ||२४९ ||