राम चरित मानस बालकाण्ड ३१७:-
चौ॰-जेहिं बर बाजि रामु असवारा । तेहि सारदउ न बरनै पारा ॥
संकरु राम रूप अनुरागे । नयन पंचदस अति प्रिय लागे ॥ १॥
हरि हित सहित रामु जब जोहे । रमा समेत रमापति मोहे ॥
निरखि राम छबि बिधि हरषाने । आठइ नयन जानि पछिताने ॥२॥
सुर सेनप उर बहुत उछाहू । बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू ॥
रामहि चितव सुरेस सुजाना । गौतम श्रापु परम हित माना ॥ ३॥
देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं । आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं ॥
मुदित देवगन रामहि देखी । नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी ॥ ४॥
छं॰ अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी ।
बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी ॥
एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं ।
रानि सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं ॥
दो॰ सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि ।
चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि ॥ ३१७ ॥