राम चरित मानस किष्किन्धाकांड दोहा संख्या २६:-
चौ॰-इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं, बीती अवधि काज कछु नाहीं ||
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता, बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता ||१||
कह अंगद लोचन भरि बारी, दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी ||
इहाँ न सुधि सीता कै पाई, उहाँ गएँ मारिहि कपिराई ||२||
पिता बधे पर मारत मोही, राखा राम निहोर न ओही ||
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं, मरन भयउ कछु संसय नाहीं ||३||
अंगद बचन सुनत कपि बीरा, बोलि न सकहिं नयन बह नीरा ||
छन एक सोच मगन होइ रहे, पुनि अस वचन कहत सब भए ||४||
हम सीता कै सुधि लिन्हें बिना, नहिं जैंहैं जुबराज प्रबीना ||
अस कहि लवन सिंधु तट जाई, बैठे कपि सब दर्भ डसाई ||५||
जामवंत अंगद दुख देखी, कहिं कथा उपदेस बिसेषी ||
तात राम कहुँ नर जनि मानहु, निर्गुन ब्रम्ह अजित अज जानहु ||६||
दो -निज इच्छा प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि,
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि ||२६ ||