राम चरित मानस लंका कांड दोहा संख्या ३६:-
चौ॰-कंत समुझि मन तजहु कुमतिही । सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही ॥
रामानुज लघु रेख खचाई । सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई ॥१॥
पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा । जाके दूत केर यह कामा ॥
कौतुक सिंधु नाघी तव लंका । आयउ कपि केहरी असंका ॥२॥
रखवारे हति बिपिन उजारा । देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा ॥
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा । कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा ॥३॥
अब पति मृषा गाल जनि मारहु । मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु ॥
पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु । अग जग नाथ अतुल बल जानहु ॥४॥
बान प्रताप जान मारीचा । तासु कहा नहिं मानेहि नीचा ॥
जनक सभाँ अगनित भूपाला । रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला ॥५॥
भंजि धनुष जानकी बिआही । तब संग्राम जितेहु किन ताही ॥
सुरपति सुत जानइ बल थोरा । राखा जिअत आँखि गहि फोरा ॥६॥
सूपनखा कै गति तुम्ह देखी । तदपि हृदयँ नहिं लाज बिषेषी ॥७॥
दो॰ बधि बिराध खर दूषनहि लीँलाँ हत्यो कबंध ।
बालि एक सर मारयो तेहि जानहु दसकंध ॥ ३६ ॥